"इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने कहा कि जब पत्नी अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है, पति को अलग कमरे में रहने के लिए मजबूर करती है तो यह वैवाहिक अधिकारों से वंचित करना है। इसके साथ ही यह पति के साथ क्रूरता के समान है।"
कोर्ट ने कहा कि पति-पत्नी के बीच फिजिकल रिलेशन बनाना भी वैवाहिक रिश्ते का एक अनिवार्य हिस्सा है।
याचिका के अनुसार दोनों ने 2016 में शादी की थी। महिला की पहली और पुरुष की यह दूसरी शादी थी। 2018 में पति ने तलाक के लिए पारिवारिक अदालत में याचिका दाखिल की थी। उसने कहा कि दोनों पक्षों के बीच संबंध केवल 4-5 महीने तक सामान्य रहे। उसके बाद पत्नी ने परेशान करना शुरू कर दिया था। याचिका के बाद कुछ समय तो पत्नी पारिवारिक अदालत में पेश हुई लेकिन बाद में उसने पेश होना भी बंद कर दिया।
जनवरी 2023 में पारिवारिक अदालत ने पति के खिलाफ फैसला सुनाया। कहा कि उसने अपनी पत्नी द्वारा दी गई धमकियों का विस्तृत विवरण नहीं दिया था। ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं, इसके पक्ष में कोई साक्ष्य भी नहीं दिया था।
इसके बाद पति ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने कहा कि हालांकि पत्नी शुरू में पारिवारिक अदालत के समक्ष उपस्थित हुई थी लेकिन उसने पति के आरोपों को चुनौती देने के लिए कोई लिखित बयान दायर नहीं किया था और इस प्रकार उसने स्पष्ट रूप से उसकी दलीलों को स्वीकार कर लिया था।
अदालत ने कहा कि परिवार न्यायालय के समक्ष पति की ओर से दायर लिखित दलीलों में यह बताया गया है कि अप्रैल 2017 से पत्नी को छोड़ दिया है।
यानी दोनों पक्षों की शादी केवल पांच महीने ही पति-पत्नी के रूप में चली है। इसके बाद पत्नी ने वैवाहिक दायित्व का निर्वहन नहीं किया है।
अदालत ने कहा कि अब पांच साल की अवधि बीत चुकी थी और पत्नी ने अपने वैवाहिक दायित्वों को निभाया नहीं है। इसका मतलब है कि पत्नी ने लगातार क्रूर तरीके से व्यवहार किया था।
बेंच ने आगे कहा कि पारिवारिक न्यायालय ने याचिका दायर करने वाले पति के पिता की तरफ से दी गई गवाही पर भी ध्यान नहीं दिया है।
हाईकोर्ट ट्रायल कोर्ट के इस तर्क से भी असहमत था कि साक्ष्य देने वाला याचिका दायर करने वाले का पिता था, इसलिए वह स्पष्ट रूप से अपने बेटे का समर्थन करेगा।
कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवादों में संबंधित घटनाएं दोनों पक्षों के बीच उनके घर की चारदीवारी के भीतर घटित होती हैं और परिवार के सदस्य उन घटनाओं के सबसे स्वाभाविक गवाह होते हैं।
परिवार के सदस्यों की गवाही को यह मानकर खारिज नहीं किया जा सकता कि वे केवल वादी के मामले का समर्थन करेंगे।
फैमिली कोर्ट ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि पति के सभी साक्ष्य अप्रमाणित रह गए हैं।
सिविल मुकदमों का निर्णय संभावनाओं की प्रबलता और उचित संदेह से परे सबूत के मानक के आधार पर किया जाना आवश्यक है, जो आपराधिक मामलों में लागू होता है, सिविल मुकदमों पर लागू नहीं होता है।
यह भी पाया गया कि पारिवारिक अदालत इस तथ्य से गलत तरीके से प्रभावित हुई थी कि उस व्यक्ति का अपनी पहली पत्नी के साथ विवाद था।
उच्च न्यायालय ने कहा कि पिछली शादी आपसी सहमति से तलाक की डिक्री द्वारा भंग कर दी गई थी और पहली पत्नी ने उसके खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया था। अदालत ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय का वादी के खिलाफ इस आधार पर धारणा बनाना उचित नहीं था कि उसकी पिछली शादी विफल हो गई थी।
इस प्रकार न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि तलाक देने के लिए क्रूरता के आधार को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत थे। रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री से पत्नी द्वारा पति के परित्याग का आधार भी स्थापित किया गया है।
फैमिली कोर्ट ने इस बिंदु पर कोई ध्यान नहीं दिया है और क्रूरता का आधार अपील की अनुमति देने के लिए पर्याप्त है। इस सवाल पर गौर करने की जरूरत है कि इस अपील में ऐसा कोई मामला नहीं है। कोर्ट ने विवाह को भंग कर पति के पक्ष में फैसला सुनाया। पति की तरफ से अधिवक्ता राजेश कुमार पांडे ने अपील और बहस की।
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